भारत का संविधान - भाग 1

अध्याय एक - प्रस्तावना की स्थापना

नोट- 'प्रस्तावना की स्थापना' भारत के संविधान पर लिखी गयी एक सीरीज है जिसे हर दिन एक नए विषय के साथ आप पढ़ सकेंगे।। आपको संविधान की प्रस्तावना पढ़ने के लिए सीरीज के अंत मे मिलेगी।।

       "WE THE PEOPLE OF INDIA"


हमारे संविधान के पहले पन्ने पर बहोत ही बड़े और मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है "WE THE PEOPLE OF INDIA" यानि कि 'हम भारत के लोग' और जब हम इस वाक्य को पढ़ते हैं तो हमारे अंदर पूरा भारत समाहित हो जाता है।।


ऊपर की यह भूमिका बनाने से मेरा आशय यह है कि हमारा आज का मुद्दा है भारत की राजनीति और भारतीय राजनीति की शुरुआत हम भारत के लोगों से होती है।। हम भारत के लोग ही भारत की शक्ति हैं और जब बात- 'हम भारत के लोग' की होती है तो इसका तात्पर्य है कि यह अपने आप में यहाँ की मिट्टी में मौजूद सभी प्रजातियों व जनजातियों को सम्मिलित करता है।।



1951 के आम चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू के रूप में राष्ट्र को पहला प्रधानमंत्री मिला और वहीं से शुरु हुई ध्रुवीकरण की राजनीति।।

ये राजनीति ही तो थी फिर चाहे वो अंग्रेजों की ही क्यों न हों जिसने एक राष्ट्र का कुर्सी की महत्वाकांक्षा के लिए विभाजन करा दिया और देश के माथे पर साम्प्रदायिक दंगे लिख दिए ।।

इस बंटवारे की राजनीति को भी सहन करके हम आगे बढ़े।। पंडित नेहरू के हाथों से होती हुई ये सत्ता लाल बहादुर शास्त्री तक पहुंची और देश को "जय जवान जय किसान" का नारा मिला।।
जैसे जैसे सत्ता के रखवाले बदले वैसे वैसे देश बदला देश की राजनीति बदली।।
1956 में देश को एम्स के रूप में पहला बड़ा स्वास्थ्य केंद्र मिला और तमाम ऐसे प्रगतीशील संस्थान देश को मिलते रहे लेकिन इनके साथ ही राजनीति भी बदली।। इसका स्तर निम्नतर होता चला गया।।


1966 में इंदिरा गांधी प्रंधानमंत्री बनी।। उन्होंने प्यार किया, बेइंतेहा प्यार किया लेकिन सिर्फ देश से।। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है पाकिस्तान का टूटना और बांग्लादेश के अस्तित्व में आना।।
लेकिन सत्ता का नशा अफ़ीम के नशे से भी ज्यादा  होता है।। इसी सत्ता के नशे ने देश पर 1975 में आपातकाल थोप दिया।। इन सबमें अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान हुआ तो वो थी देश की जनता।।

ये गरीब किसान ,मजदूर, दो जून की रोटी कमाने वाले लोग नहीं समझते हैं सत्ता के ताने बाने ।। वो समझते हैं तो सिर्फ एक वोट का इस्तेमाल करना ताकि किसी पढ़े लिखे बड़का बाबू को उस कुर्सी पर बैठा दिया जाए जो उनके भाग्य का निर्माण कर सके।। लेकिन असल हकीकत में ये सब बेमानी साबित होता है।।
1947 से चली आ रही सत्ता की ब्यार 2014 में नरेंद्र मोदी के साथ आकर थम गयी लगा के अब भारत के नए आयाम स्थापित होंगे लेकिन जब जमीन पर इसकी हकीकत देखी तो कई हद तक यह नामुमकिन से दिखता है।।
गोआ के चुनावों से लेकर मिज़ोरम के चुनावों  तक सत्ता पक्ष की ओर से विधयकों की खरीद फरोख्त इस बात पर मुहर लगाती है कि राजनीति की नैतिक शिक्षा इसके मूल्य सब ध्वस्त हो चुके हैं।।

कभी सोचिये इस बात पर क्या हमारा भारत उसी रास्ते पर है जिसका सपना हमारे क्रांतिकारियों ने देखा था ।। शायद नहीं आज बेरोजगारी पिछले 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ चुकी है।।
1 रेलवे की नौकरी के लिए डेढ़ करोड़ फार्म डाले जा रहे हैं।।
चपरासी के लिए एमबीबीएस वाले आवेदन भर रहे हैं।। कर्ज माफी के नाम पर किसान के 6 रुपये माफ किये जाते हैं।।
जिस टमाटर को उगाने में एक किसान का औसतन 80 रुपया खर्च होता है उसी टमाटर का दाम उस किसान को 20 रुलाया मिलता है।।
शायद इस भारत की कल्पना हमारे शहीदों ने नहीं की होगी।।
बेरोजगारों से लेकर किसानों तक , सेना से लेकर साशन तक, दलित से लेकर ब्राह्मण तक सबको इस राजनीति की परिभाषा बदलनी होगी।।
अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब हम अपनी ही व्यवस्था के गुलाम बन जायेंगे सिर्फ इस खोखली उदारवादी राजनीति की वजह से।।

ऐसी राजनीति को पलटने की आवश्यकता है।। शिक्षा के माध्यम से इसको जननीति बनाने की कोशिश करनी चाहिए।।

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