कहानी समाजवाद की

                                              अध्याय तीन - समाजवादी भारत

                                                     प्रस्तावना की स्थापना

नमस्कार दोस्तों, आज बात होगी समाजवाद की , बात होगी समाजवादी सिद्धांतों की।। 

मार्क्स के वामपंथी समाजवाद से लेकर लोहिया के समाजवाद तक सबकी बारी बारी से बात करेगें और बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि देश में चुनाव चल रहे हैं और इस चुनावी सरगर्मी को देखते हुए मालूम होता है कि देश मे समाजवाद का स्तर बहुत निम्न है।।


तो आइए पढ़ते हैं समाजवाद का स्वर्णिम इतिहास।।

                            हमारे देश का व्यवहार एवं इसकी आधारशिला ही समाजवादी है।।

                                    समाजवाद क्या है ?

देखो आसान भाषा में समझो दिन के सौ रुपये कमाने वाले मजदूर से लेकर कॉर्पोरेट कंपनियों के मालिकों तक सभी इस समाज का हिस्सा है।।
और इन्हीं समाज के सभी वर्गों के हितों को सुरक्षित करना ही समाजवाद कहलाता है।।

समाजवाद का अपना एक सिद्धान्त है कि कोई भी सम्पत्ति व्यक्तिगत न होकर राष्ट्रीय संपत्ति या संपदा कहलाई जाएगी।।


ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी हैराल्ड लास्की ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है।।
और उनका यह कथन कई हद तक सही भी है।।
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                                     विश्व का समाजवाद

विश्व मे अस्तित्व रखने वाला हर एक देश किसी एक विचारधारा के तहत काम करता है और ये विचारधारा तय करते हैं उस राष्ट्र के नेता , उस देश की आर्थिक , भौगोलिक, साम्प्रदायिक परिस्थितियां।।
फ्रांस से लेकर रूस तक, मार्क्स से लेकर लेनिन तक सबने समाजवाद को एक नए आयाम तक पहुंचाया है।।
जारशाही के खिलाफ रूस में 1905 को मजदूर वर्ग द्वारा की गयी क्रांति को विश्व के इतिहास में एक ऐतिहासिक क्रांति का दर्जा मिला।

ठीक उसी प्रकार 1789 में हुई फ्रांसीसी क्रांति ने आधुनिक इतिहास बदल कर रख दिया।।
1789 से शुरू हुई ये रक्तरंजित क्रांति 1799 में फ्रांस के एक गणतंत्र राज्य बन जाने के साथ ही समाप्त हुई।।
10 सालों की इस क्रांति में खूनी संघर्ष था वहां की क्रांति में शामिल लोगों की आशाएं थी, उनमे एक जोश था राज्य को नौकरशाही से मुक्त करने का और ऐसा हुआ भी।।वहां के शाशक लुई को शाशन छोड़ना पड़ा।।
और इन सब क्रांति का मुख्य कारण था इनकी साशनपध्दति।। जब राज्य की सत्ता पूर्ण रूप से नौकरशाही पर निर्भर हो जाये और राज्य के शासक को इस बात का इल्म ही न रहे कि लोगों की मूलभूत जरूरतें क्या हैं तो क्रांति होना स्वभाभिक है।।
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जर्मनी में फासीवाद को बढ़ावा देने वाला हिटलर भी अपने आप को राष्ट्रीय समाजवादी कहता था।। उसकी पार्टी का नाम 'नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी' था।।
लेकिन सच्चाई इसके विपरीत थी समाजवाद कभी हिंसा करने की सीख नही देता, समाजवाद क्रांति का मार्ग बताता है और क्रांति एवं हिंसा में अंतर है।।
समाजवाद का ढोंग रचने वाले हिटलर ने यहुदिओं पर अनेकों प्रहार किए उनके साथ दुर्व्यवहार किया एवं उन्हें जर्मनी छोड़ने पर मजबूर किया।। 
ऐसा ही हाल इटली के मुसोलिनी का था सिर्फ और सिर्फ झूठे समाजवाद की आड़ में फासीवाद को पालना ही उसका लक्ष्य था।।

अगर समाजवाद का वाक़ई कोई हिमायती रहा है तो वह है सोवियत संघ जिसने फासीवाद से युद्ध किया और उसे पराजित किया।।
फासीवाद ने दुनिया के मजदूरों के पहले राज, पहले समाजावादी देश सोवियत संघ को चन्द हफ्तों के अंदर खत्म कर देने का सपना देखा था, लेकिन समाजवाद फासीवाद से बहुत अधिक शक्तिशाली साबित हुया और उसने फासीवादी नेताओं का यह सपना भी ध्वस्त कर दिया।।

खैर सोवियत संघ के इस युद्ध पर बात एक नए अध्याय में करेंगें।।
फिलहाल हम इस बात पर चर्चा करेगें की विश्व में पौढ़े समाजवादी सिद्धांतों एवं उनके विचारों को देखते हुए भारत मे समाजवाद का व्यापक रूप  से विस्तार कैसे हुआ ? 

                                             भारत में समाजवाद

भारत एक समाजवादी देश है और यह 'समाजवादी' शब्द वर्ष 1976 में '42 संसोधन अधिनियम ' के तहत संविधान में जोड़ा गया ||
भारत में समाजवाद की जड़ें तब से हैं जब से भारत ने आज़ादी की राह पकड़ी || इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है की भगत सिंह वामपंथी विचारधारा के होते हुए भी समाजवाद के हिमायती थे || उनके दो ही सपने थे पहला भारत की आज़ादी और दूसरा भारत में समाजवादी व्यवस्था मगर अफ़सोस कि उनका सिर्फ एक ही स्वप्न  हुआ || हम आज़ाद भारत तो देख सके मगर समाजवादी भारत हमने अब तलक न देख पाया ||

समाजवाद के नाम पर पूंजीवाद और परिवारवाद का दंश कुंडली मार के बैठ गया || आज भारत में हर दूसरी पार्टी समाजवादी होने का दावा करती है लेकिन अगर उनकी जड़ें खंगाली जाएँ तो महसूस होगा की ये परिवारवाद के रक्षक हैं || इसका उदाहरण आप 'कांग्रेस' और 'समाजवादी पार्टी' से ले सकते हैं || 
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ऐसी पार्टीयों को देखकर लगता है कि क्या यही समाजवाद है जहाँ पहले बाप मुख्यमंत्री रहता है फिर बेटा , जहां एक ही परिवार के 80 प्रतिशत सदस्य अपने बैंक बैलेंस को बढ़ाने के लिए खोखली राजनीति कर रहे हों  , जहाँ समाजवादी पार्टी के नेता महलाओं के अंडरवेयर का रंग बताते फिर रहे हों,
समाजवादी पार्टी के पूर्व मुखिया मुलायम सिंह जो 1967 में पहली बार विधायकी का चुनाव जीते तो कामकाज के लिए गाड़ी न थी तब जसवंत नगर विधानसभा के लोगों ने चंदा करके इन्हें एक।एम्बेसडर कार दी आज 51 साल बाद इन्ही मुलायम सिंह की पार्टी 600 करोड़ रुपये वाली डिजिटल रथ में ऐसी में बैठकर समाजवाद का मतलब समझाने वाली पार्टी बन चुकी है।। 
ये कैसा समाजवाद है जिसमें चंदे की गाड़ी से करोड़ों रुपये तक का सफर तय किया जाता है और जिनके नाम पर यह सफर तय होता है वही नेपथ्य में चले जाते हैं।।
अगर यही समाजवाद है तो लानत है ऐसे समाजवाद पर और लानत है ऐसे नेताओं पर जो इसकी राजनीति करते हैं ।।

                                समाजवाद के मायने           

समाजवाद का अर्थ तो योग्यता का आधार है ये किसी एक व्यक्ति या समुदाय का मोहताज नहीं है।।
ये भी सत्य है कि भारत की तरक्की के रास्ते समाजवाद से ही खुलते हैं और जिन रास्तों को इन पूंजीवादी लोगों ने रोक रखा है उन्हें एक दिन विवश होना पड़ेगा ये समाजवाद के सुनहरे द्वार खोलने के लिये क्योंकि जब समाजवाद को उसका अस्तित्व खतरे में दिखाई पड़ता है तो वो अपने साथ लेकर आता है एक क्रांति जिस क्रांति में होती हैं उम्मीदों की ज्वालायें और इन ज्वालाओं में भष्म होता है पूंजीवाद व परिवारवाद।।

यही समाजवाद की सच्चाई है और यही उसकी गरिमा है और देश में मौजूदा सामाजिक व राजनीतिक हालात देखकर ये बात और मुखर होती है कि भारत को भी एक समाजवादी क्रांति की आवश्यकता है।।
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