भारत का संविधान - भाग 2

अध्याय दो - प्रस्तावना की स्थापना

नोट- इस अध्याय को समझने के लिए आपको अध्याय एक पढ़ने की आवश्यकता है जिसका लिंक नीचे दिया गया है।।
https://thejankranti.blogspot.com/2019/04/indian-politics.html?m=1

                 सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न

26 नवंबर 1949 को जब भारत के लोगों ने अपने संविधान को सर्वमत से अपनाया तो उसकी प्रस्तावना में तीन शब्द नामित किये गए जो कि इस प्रकार हैं:-
1- प्रभुत्व संपन्न
2- लोकतांत्रिक
3- गणराज्य

इसके उपरांत 1976 में 42nd संसोधन अधिनियम के तहत 'समाजवादी' एवं 'पंथनिरपेक्ष' शब्द को जोड़ा गया और फिर हमारा भारत एक "सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य" बन गया।।

ऊपर की इतनी जमीन तैयार करने से और मुख्य हैडिंग से आप समझ गए होंगे कि हम आज संप्रभुत्व भारत की बात करने जा रहे हैं।। 
इसके लिए हमको इसे बारी बारी से समझने की आवश्यकता है।।

सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न- इस शब्द से हमारा मतलब है कि भारत अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में किसी विदेशी सत्ता या शक्ति के अधीन नहीं है।। वह अपनी आंतरिक और बाहरी विदेश नीति को निर्धारित करने में किसीभी राष्ट्र के साथ मित्रता या संधि करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है।। इसकी प्रभुता जनता में निहित है।।

कुल मिलाकर भारत अपने सभी प्रकार के मामलों में सर्वोपरि है।। 
लेकिन जब से भारत आजाद हुआ है और और 1951 के आम चुनावों के बाद जब से भारत की राजनीति ने जोर पकड़ा तब से समय समय पर इस प्रभुतावादी शब्द के मतलब नेताओं ने अथवा सरकारों ने अपने अपने मन माफिक बदले हैं।।

 

   प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र में सरकारों का महत्व     

अगर हम ऊपर दिए गए इस शब्द की व्याख्या को गौर से पढ़ें तो इसमें साफ साफ लिखा है कि 'भारत की संप्रभुता भारत की जनता में निहित है'।। लेकिन क्या ऐसा वाक़ई में है?? शायद नहीं क्योंकि आज के राजनैतिक दौर में हम देख रहे हैं कि भारत की संप्रभुता भारत के नेताओं के हित में है।।

फिर चाहे वो क्यों न 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा सत्ता के मोह में लगाई गयी इमरजेंसी का ही दौर हो जिसमें इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय पटल पर संप्रभुता की मिसाल देकर आपातकाल को भारत का आंतरिक मामला बता देती हैं ताकि उनकी रजनीति पर कोई आंच न आने पाए।।

या फिर 90 के दशक में  केंद्र में लगातार अस्थिर सरकारों का गठन होना।। 
जरा अनुमान लगाइये कैसा होगा 90 का वो दौर जहाँ सभी दल अस्थिर सरकारें बनाकर देश के सभी प्रकार के मामलों को और पेचीदा कर रहे थे।।
यह सिलसिला 1999 में रुका जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और अपने कार्यकाल को पूरा किया।।

कुल प्रधानमंत्री- 1947 में भारत की आजादी के बाद से 2014 तक 14 और सब मिलाकर 15 पूर्णकालिक प्रधानमंत्री हुए हैं  जिसमें हैरान करने वाला आंकड़ा ये है कि इनमें से 9 प्रधानमंत्री ऐसे हैं जो अपना कार्यकाल ही पूरा नहीँ कर सके।।


इन सबका असर ये होता है कि चीन जैसा देश हमारी सीमा के अधिकांश भाग पर कब्जा करने की नियति रखता है और तिब्बती सीमा का चीन के हाथों में चले जाना इस बात का सबूत है कि संप्रभुता तभी सुरक्षित रह सकती है जब सरकारें स्थिर हो व उनकी नीतियां जनता के हित में हों।।

      भारत की जनता : संप्रभुत्व या दिखावा

इन सबके बीच जनता का स्थान बहोत ही दुर्बल दिखाई पड़ता है।। संविधान के अनुसार हर एक अधिकार जनता के हित में है लेकिन जब यह जमीन पर उतरता है तो जनता दुर्बल दिखाई पड़ती है।।
भारत मे संप्रभुत्व भारत की जनता को होना चाहिए और शाशकीय पदों पर बैठे नेताओं को इस प्रभुत्व की रक्षा करनी चाहिए जो कि प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से हमारा संविधान भी कहता है।।

मगर नेताओं को लगता है कि जनता सिर्फ वोट देने के लिए है बाकी सब के ठेकेदार वो स्वयं है मगर ये पूर्ण सत्य नहीं है।।

                        आखरी शब्द

जब सत्ता में बैठे लोगों की तानाशाही जनता की स्वाधीनता का हनन करने लगती है।। 

जब नेताओं के निजी फायदों के कारण राष्ट्र की संप्रभुतावादी छवि को नुकसान पहुंचता है तब लोकतंत्र की ताकत अपने पूरे जोश और खरोश के साथ उठ खड़ी होती है और चुनावी उत्सव में ऐसी तानाशाही शक्तियों को जो संविधान व लोकतंत्र के लिए हानिकारक हों जड़ से उखाड़ फेंकती है व एक नए समाजवादी अवसर का गठन करती है जो राष्ट्र की संप्रभुतावादी छवि को महफूज़ रख सके।।






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